न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम् |
भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावन: || 5||
न–कभी नहीं; च-और; मत्-स्थानि–मुझमें स्थित; भूतानि–सभी जीव; पश्य-देखो; मे–मेरा; योगम् ऐश्वरम्-दिव्य शक्ति; भूत-भृत्-जीवों का निर्वाहक; न-नहीं; च-भी; भूतस्थ:-में रहते हैं; मम–मेरा; आत्मा-स्वयं; भूत-भावन-सभी जीवों का सर्जक;
BG 9.5: मेरी दिव्य शक्तियों के रहस्य को देखो। यद्यपि मैं सभी जीवित प्राणियों का रचयिता और पालक हूँ तथापि मेरे द्वारा उत्पन्न प्राणी मुझमें स्थित नहीं रहते और मैं उनसे या माया शक्ति से प्रभावित नहीं होता।
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पिछले श्लोक में कथित रूप से उल्लिखित दो शक्तियों का अभिप्राय 'माया शक्ति और 'जीव' शक्ति से है किन्तु इनसे परे भगवान की तीसरी शक्ति भी है जिसे 'योगमाया' शक्ति कहते हैं। इस 'योगमाया' शक्ति को इस श्लोक में दिव्य शक्ति के रूप में चित्रित किया गया है। 'योगमाया' भगवान की सबसे प्रबल शक्ति है। इसे 'कर्तुम्-अकर्तुम्-समर्थः' कहते हैं अर्थात् "जो असंभव को संभव बना सकती है" और यह योगमाया शक्ति भगवान के विराट व्यक्तित्व की विशेषताओं और गुणों को प्रकट करने तथा विस्मयकारी कार्यों का निर्वहन करती है।
उदाहरणार्थ भगवान हमारे हृदय में निवास करते हैं किन्तु फिर भी हमें इसका बोध नहीं होता, क्योंकि भगवान की योगमाया शक्ति हमें उनसे विलग रखती है। समान रूप से भगवान भी स्वयं को मायाशक्ति के प्रभाव से विलग रखते हैं। वेदों में भगवान की इस प्रकार से प्रशंसा की गयी है
विलज्जमानया यस्य स्थातुमीक्षापथेऽमुया।
(श्रीमद्भागवतम्-2.5.13)
"माया शक्ति भी भगवान के समक्ष खड़े रहने में लज्जा का अनुभव करती है। क्या यह एक आश्चर्य नहीं है कि यद्यपि भगवान माया में व्याप्त हैं किन्तु फिर भी वे उससे अछूते हैं? यह योगमाया की एक अन्य रहस्यमयी शक्ति है।"
यदि संसार भगवान को प्रभावित कर सकता फिर जब प्रलय हो जाता है तब उसकी प्रकृति और विराट व्यक्तित्व में भी विकृति होनी चाहिए। किन्तु संसार में होने वाले सभी परिवर्तनों के पश्चात् भी भगवान अपने दिव्य स्वरूप में प्रतिष्ठित रहते हैं। तदनुसार वेदों में भगवान को दशांगुली के नाम से भी पुकारा जाता है। वे संसार में हैं किन्तु फिर भी उससे दस अंगुल परे और अछूते हैं।